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आल्हा ( Aalha ) बनाफर कुल के यादव (अहीर) थे । आल्हा ( Aalha) के पिता का नाम दसराज ( Dasraj ) और माता का नाम देवला ( Dewal) था। आल्हा के छोटे भाई का नाम ऊदल ( udal) था और वह भी वीरता में अपने भाई से बढ़कर ही था। आल्हा (alha) मध्यभारत में स्थित ऐतिहासिक बुंदेलखण्ड के सेनापति थे और अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। दसराज और वसराज का जन्म बिहार (bihar) राज्य के बक्सर (baxar) जिले के बराप्ता (vrapta) नाम गांव में अहीर (ग्वाल ) [ahir or Gwal / cowherd ] परिवार में हुआ था ।
जगनेर के राजा जगनिक ने आल्ह-खण्ड नामक एक काव्य रचा था उसमें इन वीरों की 52 लड़ाइयों की गाथा वर्णित है।
ऊदल ने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करते हुए ऊदल वीरगति प्राप्त हुए आल्हा को अपने छोटे भाई की वीरगति की खबर सुनकर अपना अपना आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े आल्हा के सामने जो आया मारा गया 1 घंटे के घनघोर युद्ध की के बाद पृथ्वीराज और आल्हा आमने-सामने थे दोनों में भीषण युद्ध हुआ पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हुए आल्हा के गुरु गोरखनाथ के कहने पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया और बुंदेलखंड के महा योद्धा आल्हा ने नाथ पंथ स्वीकार कर लिया ।
आल्हा चंदेल राजा परमर्दिदेव (परमल के रूप में भी जाना जाता है) के एक महान सेनापति थे, जिन्होंने 1182 ई० में पृथ्वीराज चौहान से लड़ाई लड़ी, जो आल्हा-खांडबॉल में अमर हो गए।
नाम | आल्हा |
पिता का नाम | दसराज / दक्षराज |
माता का नाम | देवला |
पत्नी का नाम | सोना |
जाति | अहीर |
जन्म स्थान | महोबा , उत्तर प्रदेश |
पिता का जन्म स्थान | वराप्ता गांव, बक्सर, बिहार |
भाई | ऊदल |
ग्रन्थ | अल्हाखण्ड |
जन्मतिथि | 25 मई 1140 ई. |
मुख्य प्रतिद्वंदी | पृथ्वीराज चौहान |
आल्हा जयंती | 25 मई |
आल्हा ( alha) पिता दसराज वनाफर कुल के अहीर थे। इसके लिए archeological survey of India Report 1862-1884 में साफ साफ लिखा है| बनाफर यादवों की एक उपशाखा है| Rethinking India’s Oral and Classical Epics: Draupadi by Alf Hiltebeitel page:131 पर उल्लेख है की
दसराज और वसराज का जन्म बिहार (bihar) राज्य के बक्सर (baxar) जिले के बराप्ता (vrapta) नाम गांव में अहीर (ग्वाल ) [ahir or Gwal cowherd in 1st line] परिवार में हुआ था । इसके अलावा इनके संदर्भ में अन्य कोई श्रोत प्राप्त नहीं होता है|
Desaraja and Vatsaraja are born to a beautiful Abhiri (Ahir or Cowherd) named Vratapa from the village of Vaksara, whose nine-year-long nine-Durga-vow (Navadurgavrata) secured a boon from thei goddess Chandika of two sons like Rama and Krsna. “A king namedi Vasumant,” whose name means “Rich” and is otherwise unknown, was struck by her beauty and married her, and their sons, Desaraja ani Vatsaraja, then conquered Magadha and became kings (4.22-30).
In the Eilliot Alha, the border feud between the senior Banaphars andi Mira Talhan is settled by Parmal’s arbitration at Mahoba. Parmal theni appoints Mira Talhan as the “commander of his army” or “captain of alll his hosts of war,” and as his “hereditary generals” he establishes the fouri senior Banaphars, who had previously been defenders of the gates of thel city of Baksar (Sanskrit Vaksara, as above) in Bihar (W&G 15, 58, 64).
The first building mentioned is commonly called Alha-ka-Batika, alter the famous warrior Alha, whose achievements are sung all over these parts, and the tale extant regarding the Ahir chiets, Alha and Udal, with their master Parmal are almost without number.
क्या ताकत है इस पाजी कि, जो ये समाप्ती बन जाय । आखिर बेटा है अहीर का, गौवे रोज चरावे जाय।।
Asalī baṛā Ālhā khaṇḍa (असली बड़ा आल्ह खण्ड)
archeological survey of India की रिपोर्ट में साफ साफ लिखा है कि बनाफर ग्वाल ( अहीर ) की उपशाखा है।
उपरोक्त प्रमाणों के अनुसार ना केवल आल्हा माताएं और दादी अहीर थी बल्कि उनके पिता भी अहीर (यादव) कुल के ही थे।
‘आल्हखण्ड’ में आल्हा-ऊदल द्वारा विजित 52 लड़ाइयों की गाथा है। जिसका संकलन, 1865 में फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर, सर चार्ल्स ‘इलियट’ ने अनेक भाटों की सहायता से कराया था।
सर जार्ज ‘ग्रियर्सन’ ने बिहार में इण्डियन एण्टीक्वेरी तथा ‘विसेंट स्मिथ’ ने बुन्देलखण्ड लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया में भी आल्हाखण्ड के कुछ भागों का संग्रह किया था।
वाटरफील्डकृत अनुवाद “दि नाइन लेख चेन” (नौलखा हार) अथवा “दि मेरी फ्यूड” के नाम से कलकत्ता-रिव्यू में सन १८७५-७६ ई० में इसका प्रकाशन हुआ था।
इलियट के अनुरोध पर डब्ल्यू० वाटरफील्ड ने उनके द्वारा संग्रहीत आल्हखण्ड का अंग्रेजी अनुवाद किया था। जिसका सम्पादन ‘ग्रियर्सन’ ने १९२३ ई० में किया।यूरोपीय महायुद्ध में सैनिकों को रणोन्मत्त करने के लिए ब्रिटिश गवर्नमेंट को इस ‘आल्हाखण्ड’ का सहारा लेना पड़ा था।यह वीर रस का रसायण है ।जस्सराज तथा बच्छराज बनाफर गोत्रीय यदुवंशी/अहीर थे।
वन में फिरें वनाफर यौद्धा , लिए हाथ में धनुष तीर ।
दोऊ भ्राता गइयन के चरबय्या आल्हा-ऊदल वीर अहीर ।।
कुछ इतिहासकार इनका निकासा बक्सर(बिहार) का मानते हैं।
इनके लिए दलपति अहीर की पुत्रियां ‘दिवला’ तथा ‘सुरजा’ व्याही थीं, जिन्हें दलपति ग्वालियर( गोपालपुर )का राजा बताया गया है। दुर्धर्ष योद्धा दस्सराज-बच्छराज परमाल के यहाँ सामन्त/सेनापति थे। जिन्हें माढ़ोंगढ़ के राजा जम्बे के पुत्र कडिंगाराय ने सोते समय धोखे से गिरफ्तार करके कोल्हू में जिंदा पेर कर खोपड़ी पेड़ पर टँगवा दी थी।
जिसका बदला पुत्रों, आल्हा-ऊदल और मलखे-सुलखे ने कडिंगा और उसके बाप को मारकर लिया और इस कहावत को चरितार्थ कर दिखाया कि अहीर 12 वर्ष तक भी अपना बदला नहीं भूलता।
स्वाभिमानी वीर आल्हा-ऊदल ताउम्र परमाल तथा कन्नौज के राजा जयचन्द के विश्वसनीय सेनापति बने रहे। जबकि मलखान ने सिरसा में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था। कन्नौज नरेश जयचन्द, सम्राट पृथ्वीराज के मौसेरे भाई थे जिनकी पुत्री संयोगिता को पृथ्वीराज द्वारा भगाना, दोनों के बीच वैमनष्यता का कारण बना था।
जिसका कुफल सारे देश को भोगना पड़ा। संयोगिता अपहरण के समय ही ‘एटा’ जनपद में रुस्तमगढ़ के पास पृथ्वीराज के दस्ते से दुस्साहसपूर्वक टकराते हुए जखेश्वर यादव (जखैया) शहीद हुआ था। जिसकी जात ककराला और पैंडत (फिरोजाबाद) में आज भी होती है।
‘बनाफर’ वंश को ओछा (तुच्छ) समझकर राजा इन्हें अपनी कन्याएँ ब्याहने में हिचकते थे।
किन्तु इन्होंने तलवार के बल पर अधिकांश राजाओं को अपना करद बनाकर उनकी लड़कियां व्याही थीं। जिसकी गवाही आल्हखण्ड की यह निम्न पंक्तियां स्वयं देती हैं…
__जा गढ़िया पर चढ़े बनाफर,ता पर दूब जमी है नाय।
दृष्टि शनीचर है ऊदल की,देखत किला क्षार है जाय।।
स्वयं पृथ्वीराज चौहान को आल्हा-ऊदल की तलवार के आगे विवश होकर, न चाहते हुए भी, अपनी पुत्री बेला, चन्द्रवंशी ‘परमाल’ के पुत्र ब्रह्मा को व्याहनी पड़ी थी।
परमाल की पुत्री ‘चन्द्रावलि’ बाँदोंगढ़ (बदायूं) के राजकुमार इंद्रजीत यादव को व्याही थी।
उरई का चुगलखोर राजा ‘माहिल’ परिहार स्वयं अपने बहिनोई राजा ‘परमाल’ से डाह मानते हुए उनके विरुद्ध ‘पृथ्वीराज चौहान’ को भड़काता रहता था।
क्योंकि महोबा उसी के बाप ‘वासुदेव’ का था जिसे परमाल ने ले लिया था। सन 1182 में हुए दिल्ली-महोबा युद्ध में कन्नौज सहित यह तीनों ही राज्य वीर विहीन हो गए थे। इसी कमजोरी के कारण भारत पर विदेशी हमले शुरू हो गए थे.
बनाफर राजपूतों में भी पाए जाते हैं | परन्तु बनाफर राजपूत की उत्पति कैसे हुई वो स्वयं नहीं जानते! जैसे गड़रिया यदुवंशी ब्रमहपाल अहीर ने जादौन में शामिल होकर कालांतर में उनके वंशज राजपूतों में जुड़ गए वैसे ही संभवतः कुछ बनाफर अहीर भी राजपूतों में मिल गए और बनाफर राजपूत कहलाए|
बनाफर राजपूत का 11 वीं शताब्दी से पूर्व का कोई इतिहास नहीं है तो फिर समझने वाली बात ये है कि ये आए कहा से? इनके पास प्रमाणों के नाम पर केवल गाली गलौज होता है और कही से कोई घिसा पिटा आर्टिकल जो राजपूत के द्वारा लिखा गया होता है उन्ही को प्रमाण बना लेते हैं। वैसे भी राजपूत यादव, जाट, गुज्जर , पासी , राजभर आदि जातियों का इतिहास अपना बना कर प्रस्तुत करने का कार्य कोई नया नहीं है|
राजपूत आल्हा को चंद्रवंशी बनाफर क्षत्रिय कहते हैं और अपना बताते हैं| इनकी तुच्छता की सीमा तो देखो:
अहीर चंद्रवंशी होते हैं, अहीर से ही यादव हैं, बनाफर यादवों का ही उपशाखा है और इसी कुल में दसराज (आल्हा के पिता ) का जन्म हुआ़ था| ये बीच के तथ्य को अलग करके आल्हा ऊदल को राजपूत घोषित करते हैं। Rethinking India’s Oral and Classical Epics: Draupadi by Alf Hiltebeitel page:131 पर उल्लेख हैै दसराज और वसराज का जन्म बिहार (bihar) राज्य के बक्सर (baxar) जिले के बराप्ता (vrapta) नाम गांव में अहीर (ग्वाल ) [ahir or Gwal cowherd in 1st line] परिवार में हुआ था । इसके अलावा इनके (दसराज) संदर्भ में अन्य कोई श्रोत प्राप्त नहीं होता !
अब समझने वाली बात ये है कि यदि आल्हा के पिता दशराज/ दच्छराज का जन्म अहीर (ग्वाल ) परिवार में हुआ था । तो आल्हा ऊदल राजपूत कैसे हो सकते हैं| जबकि आल्हा के पिता के सन्दर्भ में राजपूत से सम्बद्ध कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।
स्थानीय लोगों के अनुसार आल्हा अहीर (यादव) जाति का ही बताते हैं।
आल्हा के संदर्भ में यादव और राजपूत के बीच मतभेद का मुख्य कारण है कि अधिकतर मुस्लिम और अंग्रेज़ इतिहासकारों ने क्षत्रिय, राजा या योद्धा जैसे शब्द के स्थान पर राजपूत शब्द का उपयोग किया । जिससे बहुत सारे यादव, गुज्जर , जाट, पासी आदि राजाओं के लिए राजपूत शब्द का प्रयोग किया गया। इसी इसिहास के सहारे बहुत सारी अन्य जातियां के 2-4 गोत्र 19 वीं शताब्दी तक राजपूतों में शामिल होते रहे । इसीलिए राजपूतों का मतभेद सबके साथ होता है। राजपूत शब्द मूलतः खानजादा शब्द के संस्कृत अनुवाद के फलस्वरूप प्राप्त हुआ।
राजपूत मूलतः हूण, शक, बंजारे, यवन, मलेक्ष आदि के माउंट आबू पर्वत पर हुए यज्ञ में राजपूती करण के बाद पहली बार 6 वीं शताब्दी में उदित हुए ।
The Vernacularisation of Democracy by Lucia Michelutti के पृष्ठ संख्या 63 और 80 पर clearly mention है कि आल्हा ऊदल यादव( अहीर) जाति से संबद्ध थे|
झांसी. महोबा जिले के 12वीं शताब्दी के वीर योद्धा आल्हा और ऊदल की वीरता की कहानी उत्तर भारत के घर-घर में कही जाती है। इन योद्धाओं ने अलग-अलग 52 लड़ाइयां लड़ीं और सभी में विजयी हुए। दोनोें ने पृथ्वीराज चौहान और उनकी सेना को भी लड़ाई में काफी नुकसान पहुंचाया था। dainikbhaskar.com आपको आल्हा ऊदल से जुड़े और किस्सों को बताने जा रहा है।
लोग आज भी करते हैं आल्हा ऊदल का सम्मान– स्थानीय लोगों का कहना है कि 800 साल बीतने के बाद भी महोबा के ऊदल चौक से ऊदल के सम्मान में लोग घोड़े पर सवार होकर नहीं गुजरते हैं।
– शादियों के समय में दूल्हे को यहां घोड़े पर बैठाकर नहीं गुजारा जाता है।
– इस पर अंग्रेज प्रशासक जेम्स ग्रांट ने लिखा है, ‘एक बार एक बरात जा रही थी और दूल्हा घोड़े पर बैठा था। जैसे ही बरात ऊदल चौक पर पहुंची, घोड़ा भड़क गया और उसने दूल्हे को पटक दिया। मैं सुनते आया था कि ऊदल चौक पर कोई घोड़े पर बैठकर नहीं जा सकता, लेकिन आज मैंने यह प्रत्यक्ष रूप से देखा।’
आल्हा ऊदल की कहानी के बिना पूरे नहीं होते सामाजिक संस्कार
– महोबा में ज्यादातर सामाजिक संस्कार आल्हा ऊदल की कहानी के बिना पूरे नहीं माने जाते हैं।
– बच्चों के नाम भी आल्हखंड से लेकर रखे जाते हैं।
– पूरे महोबा और बुंदेलखंड में कई जगह हैं, जो दोनों योद्धाओं की याद दिलाते हैं।
बचपन से पराक्रमी थे आल्हा ऊदल– आल्हा ऊदल मंच के दाऊ तिवारी बताते हैं कि आल्हा-ऊदल महोबा के जच्छराज और माता देवला की संतान थे।
– आल्हा बड़े तो ऊदल उनके छोटे भाई थे। दोनों बचपन से ही बेहद पराक्रमी थे।
– जब दोनों भाई तलवार लेकर निकलते थे, तो दुश्मनों में हाहाकार मच जाता था।
– महोबा और बुंदेलखंड के लोग आज भी आल्हा ऊदल की वीरता का सम्मान करते हैं।
अहीर!
आल्हा-ऊदल के वंश की उत्पत्ति को लेकर इतिहासकारों का ये मत है कि इनके पिता बच्छराज सिंह वनाफर कुल के थे जिसकी उत्पत्ति वनाफ़र अहीरों से हुई थी । मध्यप्रदेश में यदुवंशी अहीरों की दो शाखा बहुत प्रसिद्ध है “हवेलिया अहीर” और “वनाफर अहीर” अर्थात वनों में रहने के कारण वनाफ़र कहलाए।
Content
उदल के पुत्र का क्या नाम था?उदल के घोड़े का क्या नाम था?पथरीगढ़ कौन सी जगह पर है?आल्हा की पत्नी का क्या नाम था?
The term Alha Khand is used to refer to poetic works in Hindi which consists of a number of ballads describing the brave acts of two 12th century Banaphar Ahir heroes, Alha and Udal, generals working for king Paramardi-Deva (Parmal) of Mahoba (1163-1202 CE) against the attacker Prithviraj Chauhan (1149–1192 CE) of Delhi. The works has been entire handed down by oral tradition and presently exists in many recensions, which differ from one another both in language and subject matter.[1] The Bundeli, the Bagheli, the Awadhi, the Bhojpuri, Maithili and the Kannauji recensions are the most well known among these.
यदुवंशी अहीर के वंश में हुए दसराज – दसराज के पुत्र हुए आल्हा – आल्हा के पुत्र हुए इंदल- अज्ञात
आल्हा अहीर जाति के थे। दसराज और वसराज का जन्म बिहार (bihar) राज्य के बक्सर (baxar) जिले के बराप्ता (vrapta) नाम गांव में अहीर (ग्वाल ) [ahir or Gwal ] परिवार में हुआ था ।
पथरीगढ़: गजेटियर आॅफ इंडिया।। में गोदावरी नदी पर स्थित पाथरी नाम मिलता है। क्या यही पथरीगढ़ है ?
आल्हा 10 वीं शताब्दी में पैदा हुए थे।
आल्हा का विवाह नैनागढ़ में हुआ था|
आल्हा और ऊदल दो भाई थे। ये बुन्देलखण्ड के महोबा के वीर योद्धा और परमार के सामंत थे।
भविष्य पुराण के अनुसार आल्हा, महाभारत के भीमसेन के अवतार थे।
यह केवल लोक मान्यता है कि आल्हा जिंदा हैं, यह तथ्य सत्यता से परे है|
हां ! दसराज और वसराज का जन्म बिहार (bihar) राज्य के बक्सर (baxar) जिले के बराप्ता (vrapta) नाम गांव में अहीर (ग्वाल ) [ahir or Gwal ] परिवार में हुआ था ।
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